जैसा कि होता आया है हर आदि का अंत होता है आज मेरे जिंदगी का एक अध्याय समाप्त हो रहा है। भारी मन से सही पर इस वक्त को अलविदा कहना होगा।
सामान्य लोगों की तरह मैं भी युवावस्था में आशिकी की गिरफ्त में था पर यह औरों से बिल्कुल जुदा था। मुझे खुद को समझ पाने में काफी देर लगी तब मैं जीवन की भागदौड़ में मशगूल था, जैसा कि हर मध्यम वर्गीय परिवार के हर पीढ़ी की पास जिंदगी की जरिया ढूंढने की आवश्यकता होती है, मेरा भी था।
सपना लेकर चला था राज्य प्रशासनिक सेवा में शामिल होने का। कॉलेज खत्म होते ही मैं तैयारी में जुट गया। इस तैयारी ने ना केवल मेरी नौकरी के लिए बल्कि मेरे विचार और व्यवहार पर भी काफी असर डाला, इस संघर्ष के साथ ही मेरे इस अध्याय का भी सूत्रपात हुआ। दो वर्ष की लंबी तैयारी में पहले प्री की तैयारी पूरी लगन से की जिसका सकारात्मक परिणाम भी मिला जिसने मेरे आत्मविश्वास को बढ़ाया और आगे तैयारी जारी रखने की प्रेरणा मिली। मैं मुख्य परीक्षा की तैयारी करने लगा इसी बीच मैने पाया कि कोई मेरे दिल में दस्तक दे रहा है, मैंने उस पर विचार किया तो पाया कि उसका मेरे आसपास होना मेरे व्यवहार को सकारात्मक और उत्साहित बना रहा है। मैं खुद में बेहतर करने के लिए प्रेरित हो रहा हूं ,पर अब तक मैं उस शक्तिपुंज को पाने में विश्वास नहीं रखता था।मैं अपने भावनाओं के प्रति उदासीन होने की असफल चेष्टा करता रहा। मन ही मन उसकी उपस्थिति की ख्वाहिश और दूर से उसके नैनाभिराम दृश्य का रसास्वादन पर मेरी इंद्रियां आसक्त हो गई।मन में यह संकल्प उठा कि अब इस यात्रा के पूरा हो जाने पर ही अपने मनोभावों को उसके सामने उड़ेलूंगा। इसी प्रकार हर रोज मेरा उत्साह बढ़ता गया। यह सोंच-सोंच कर रोमांचित होता रहा कि एक दिन उसके सामने मैं खुद को समर्पित कर दूंगा।
अब मैं लोगों के नजर में दो नाव पर सवार था, मगर मैं इसे एक ही नाव समझता हूं क्योंकि इस प्रेम ने मेरे पैरों पर बेड़ियां नहीं भुजाओं में पंख का कार्य किया। संयम ने मेरे जीवन के इस नवीन अनुभूति का नियमन कर मुझे सदमार्गी बनाए रखा।
एक दिन यह पता चला कि जिसे मैं अपने आंगन की तुलसी समझ रहा हूँ वो किसी स्वर्ग के देवता पर अर्पित हो चुकी है। एक पल को लगा जैसे मेरा आंगन विरान हो गया, खाली आंगन मुझ पर फब्तियां कस रही थीं, अगली ही क्षण लगा कि मैंने तो कुछ खोया ही नहीं , क्योंकि अभी तक उसे पाया नहीं था, फिर गम कैसा ?
आज भी वो उसी नजाकत के साथ घाट से गुजरती है और मैं उसी घाट पर प्यास बुझाता हूँ । अब यह होश भी आ चुका था कि इस नदी को मैं अपनी अंजुली में नहीं भर सकता इसकी परिणति तो सागर है।
अब तक मेरी तैयारी को तीन साल गुजर चुका था, मैंने चौथी बार पूरी तैयारी से परीक्षा दी मैं सफल हुआ पर इस बार मुझमें कोई उत्साह नहीं था लगा कि "सब कुछ लुटा कर, कुछ पाया, तो क्या पाया?" चुपचाप बैठा विचार करता रहा, परिवार के लोगों ने खुशियां मनाई पर मैं इस मेले में भी अकेला था। आज लग रहा था कि जैसे कुछ खोया है पर जानते हुए कि बीते लम्हे को सुधार नहीं सकता मैंने आगे बढ़ने का फैसला लिया।
अब तक वह मेरी भावनाओं से अपरिचित थी, एक दिन अचानक वह बोली कि अब वह अपने देवता से सात जन्मों का संबंध निभाएगी सुनकर मेरे हृदय में वज्रपात हो गया, मेरी भावनाओं के पुल टूट कर बिखर गये, मैंने खुद को पूरी तरह बयां कर दिया, खुद को स्वर्ग से निष्कासित देवता की तरह अपने आराध्य के चरणों में सिर रख दिया,उसने मुझे स्वीकार अस्वीकार से परे सहानुभूति पूर्वक अपने मणिमुकुट में स्थान दिया यह मेरी उम्मीद से बड़ी उपाधि थी।
आज मेरी तुलसी, मेरा घाट, मेरा आराध्य सांसारिक दृष्टि से दूर होकर भी मेरी स्मृति में प्रथम प्रत्यय के रूप में स्थापित है।यह एक ऐसा खेल था जिसे मैंने हारने के लिए ही खेला था पर इस हार से मुझे जो आत्मीय सुख मिला मैने उसकी उम्मीद न की थी,इस हार ने मुझे मेरे सबसे प्यारी दोस्त के करीब लाया,मानों इस निष्कासित देवता को उसने पुनः स्वर्ग का उपहार दे दिया हो।
मैं उसके हर निर्णय में साथ हूँ। उसके लिए मंगल-कामनाओं से हृदय भर जाता है।अब मेरे जीवन में लंबी और सुखद इंतजार है,सुखद इसलिए क्योंकि यही वो डोर है जो मुझे उसकी स्मृति के साथ जोड़कर रखेगी। इसी के साथ मेरी जिंदगी का एक और अध्याय समाप्त हो गया। इस प्रेम कथा की सफलता असफलता पाठक की योग्यता पर निर्भर करता है।तथा अपने निष्कर्ष के लिए स्वतंत्र है।
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