INDIA

रज़ा

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  तू रख ले मुझे जैसे तेरी रज़ा हो तेरी हर रज़ा में भी मेरी मजा हो  तुझसे अलग जी न चलता जहां का  हँस के भी सह लेंगे कोई सजा हो।। तुझसे है सूरज ये चांदनी तुझसे तुझसे जहां है ये रागिनी तुझसे तुझसे महकती फिज़ा इस जहां की सारे जहां की तुम्ही एक वजह हो हँस के भी सह लेंगे कोई सजा हो  तू रख ले मुझे जैसे तेरी रज़ा हो।। मेरे मौला मैं तो हूं आशिक तेरा ही गले से लगा ले या दूरी बना ले  मैं होके फ़ना हो जाऊं जहां की रहम के बिना तेरे जीना कज़ा हो हँस के भी सह लेंगे कोई सजा हो तू रख ले मुझे जैसे तेरी रज़ा हो।।                        🎉DC✨️✨️✨️                                    🍓🍍🍍👍👍

अंधेरा घना है!


वर्ष 2020 नव वर्ष की खुमारी अभी उतरी न थी कि कोराना का विष फैल गया।पूंजीवादी समाज के विकासोन्मुखता कब होड़ में बदलकर पृथ्वी के गर्भ खोदने लग गयी पता ही नही चला और तो और कमजोर विकाशशील देशों ने भी अपनी कमजोरी से शुतुरमुर्ग की तरह आखें बंद कर इसी विकास के अंधे दौड़ में शामिल हो गये तथा संसाधनों की बेतहाशा दोहन प्रारंभ कर रही-सही कसर पुरा कर विनाश में अपनी पूर्ण सामर्थ्य से भागीदारी निभाई।जल,जंगल,वनस्पति,खनिजऔर शुद्ध हवा-पानी के बदले भला कैसा विकास,यह विकास तो घाटे का सौदा अधिक लगता है।पूंजीवाद से बनाई गयी सारी व्यवस्था चौपट हो गयी,कहने को इससे देश की विकासशक्ती जुड़ी है पर इससे बड़ा खोखला भ्रम और कुछ नही हो सकता जो महीने-दो-महीने के तालाबंदी से घुटने पर आ जाये क्या ऐसे स्त्रोतों से देश को सुरक्षित और विकसित बनाया जा सकता है।यह तो पुरी तरह पूंजीपतियों द्वारा शोषण को जारी रखने का चाल है जिसमें आज पुरा विश्व फंसा है।श्रमिकों का आज स्थिति देख लीजिए सरकारों के बड़बोलापन कैसे धराशायी हो गये हैं।बात तो हुई थी हवाई चप्पलों को हवाई यात्रा कराने की और यह नाटकीय क्रम चला भी था पर आज श्रमिकों को घर पहुँचाने के लिए इस तथाकथित 'सुपर पावर' के पास पर्याप्त बसें तक नही है।
मजदूर चले जा रहें है मिलों पैदल ही।सच तो ये है कि ये मजदूर अपनी हार स्वीकार कर चुकी है वे जान गये हैं कि न सत्ता में उनका कोई है और न ही उनसे किसी का कोई सरोकार है।वो ये भी जान गये हैं कि मरना ही उनका अंतिम सत्य है इसलिए कोरोना का विकराल स्वरूप भी उनके कदम नही रोक पाये।भूखे प्यासे सैकड़ों मिलों की दूरी पैदल या साइकिल पर पुरी कर रहे हैं।और हम उनके मजबूरी को महानता साबित करने में लगे हैं।क्या बीतती होगी उस लड़की पर जब वह अपने 1500km की यात्रा को याद करती होगी क्या वह कभी भी इस देश के लोकतंत्र और उसके पैरोकारों पर भरोसा कर पायेगी क्या वो कभी अपने हकूक को पाने के लिए इन सरकारी तंत्र पर भरोसा कर पायेगी।पर हम तो बड़े बेशर्मी से मजबूरी को अतिमानवता के भांति प्रचार कर रहे हैं।जब सवाल की जाए तो जवाब में सेना की सीमा पर खड़े होने की दुहाई परोश दी जाती है और अप्रत्यक्ष इशारा दे दी जाती है कि सत्ता पर सवाल न करें।एक के काम को दूसरे के विरोध में खड़ा कर दिया जाता है।क्या इस देश का किसान,डाॅक्टर,इंजीनियर और अन्य सभी अपने अपने काम न करें तो क्या देश सुरक्षित रह पायेगा।
देश तो चैन की कड़ी के भांति है जिसका एक भी कड़ी कमजोर होगी तो पुरी चैन बेकार हो जाता है,ठीक उसी प्रकार देश के प्रत्येक ब्यक्ति का महत्व है उसे किसी के विरोध में खड़ा नही किया जा सकता पर सत्ता के गलियारे में जवाबदेही से बचने का ऐसे अनेक हथकंडे अपनाये जाते हैं।ऐसी हरकतों से हम वास्तविक स्थितियों को अस्वीकार करते हैं पर हमारे स्वीकार-अस्वीकार से वास्तविकता में बदलाव तो नही आ जाता वह तो स्पष्ट हो ही जाता है।
कोरोना का यह महासंकट काल विकास के मौजूदा अभिकरणों का प्रकृति द्वारा अस्वीकार्यता का प्रतीक है यदि अब भी न संभले तो निश्चित ही निकट भविष्य में इससे भी विध्वंसक परिस्थितियों से गुजरना होगा।
विश्व के अर्थव्यवस्था पर आज सूक्ष्म दृष्टिपात करें तो यही स्पष्ट होता है कि सारे पूंजीवादी देश आज समाजवाद की तरह राहत पैकेज दे रही है सीधे नागरिकों को धन प्रदान कर रही है ताकि घूटने टेक चूके उनके छद्मविकास प्रतिरूप को फिर खड़ा किया जा सके,दुनिया भर में मजदूरों से संबंद्ध कानूनों में व्यापक बदलाव कर पुनः श्रमिकों के शोषण को वैध बनाने का कुत्सित प्रयास किया जा रहा है।विकासशील देश जो पहले ही इन पूंजीवादी देशों के अघोषित उपनिवेश बन चुके हैं    स्वाभाविक ही इन देशों की फूहड़ नकल करने में जुट गयी है।।
कहते हैं 'हर संकट में अवसर छिपा होता है।' कोरोना विकासशील देशों के लिए वहीं अवसर लेकर आया है।वे अपने नकलची रवैया से बाहर निकलकर विश्व को विकास और प्रगति के नये आयाम दिखा सकता है।अधिक भौतिक विकास के स्थान पर अधिक गुणवत्ता युक्त विकास के लिए प्रयास करना चाहिए।'सबका साथ ,सबका विकास,सबका विश्वास' को कगजों और कोरी लफ्फाजों से जमीन पर उतारना होगा।सीधे प्रत्यक्ष अंतरण से गरीबों को शसक्त करना होगा,उनकी उपभोगात्मक व्यय बढ़ाना होगा तभी अर्थतंत्र में गति आयेगी । अर्थव्यवस्था का संकट तो भारत में कोरोना से पूर्व की रही है और यह संकट ग्राहक स्तर पर है।उपभोक्ता आर्थिक असुरक्षा से घिरा हुआ ऐसे में उपभोग व्यव में नकारात्मक प्रभाव पड़ा है।मामला स्पष्ट है उपभोक्ताओं को शसक्त करने की, हालांकि यह रास्ता समाजवाद का है पर देश यदि विचारधारा से बड़ा हो तो यह किया जा सकता है।
दुनिया के पूंजीवादियों ने आखिर इस संकट काल में समाजवाद के विचार को अपना कर उसे अलग अलग नाम देकर पूंजीवाद के लबादा ओढ़ाकर ही सही पर लोगो को शसक्त किया है।
वक्त है बदलाव का!

Comments

  1. निश्चित ही यह वर्तमान का दर्पण प्रतीत होता है।अघोषित उपनिवेश बन गया है देश।आपने हर एक पहलु को बारीकी से समझाने का प्रयास किया है और सफल भी रहें।

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  2. अंतर्द्वंद्व करने और जागृत वाला लेख 👍

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