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Showing posts from September, 2020

INDIA

रज़ा

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  तू रख ले मुझे जैसे तेरी रज़ा हो तेरी हर रज़ा में भी मेरी मजा हो  तुझसे अलग जी न चलता जहां का  हँस के भी सह लेंगे कोई सजा हो।। तुझसे है सूरज ये चांदनी तुझसे तुझसे जहां है ये रागिनी तुझसे तुझसे महकती फिज़ा इस जहां की सारे जहां की तुम्ही एक वजह हो हँस के भी सह लेंगे कोई सजा हो  तू रख ले मुझे जैसे तेरी रज़ा हो।। मेरे मौला मैं तो हूं आशिक तेरा ही गले से लगा ले या दूरी बना ले  मैं होके फ़ना हो जाऊं जहां की रहम के बिना तेरे जीना कज़ा हो हँस के भी सह लेंगे कोई सजा हो तू रख ले मुझे जैसे तेरी रज़ा हो।।                        🎉DC✨️✨️✨️                                    🍓🍍🍍👍👍

सुमित्रा की डायरी

 उसके जाने के बाद जिंदगी सूखे कुँए के जगती सा हो गया था, नियति की सीढ़ी लगाए सूरज रोज चढ़ता और उतर जाता मेरी बेजार निगाहें उसकी रोज पीछा करतीं जिस मुहाने से इंतजार शुरू होता उसी मुहाने पर आकर खत्म हो जातीं, यूं ही कुछ दिन चलता रहा एक रोज अचानक टेलीफोन बज उठा मैं लपका और घंटी बंद हो गई मैं वहीं कुर्सी लगाकर बैठ गया और अखबार उलटने पलटने लगा कुछ समय बाद फिर घंटी बजी मैंने रिसीव किया सामने से एक मृदुल आवाज आयी जी, चंद्रभान जी से बात हो पायेगी, मैंने कहा कहिए क्या बात है मैं ही चंद्रभान हूं।आवाज मुझे जानी पहचानी सी लग रही थी पर वक्त का तकाजा कुछ स्पष्टता की कमी थी सामने से आवाज आई मैं निरूनिमा! निरूरिमा? कौन निरूनिमा? उसने कहा निरूनिमा, सुमित्रा की बहन, सुमित्रा का नाम सुनते ही पूरे बदन में बिजली दौड़ गयी मुझे अपने बचपन के दोस्तों में सिर्फ यह एक नाम ही याद रह गया था और इसी नाम के सहारे मैंने अपनी सारी जिंदगी गुजारी थी वह हमेशा मेरे मन में उमड़ती घुमड़ती रहती थी। हमने साथ-साथ स्कूल से ग्रेजुएशन तक पढ़ाई की थी फिर मुझे रिसर्च के लिए विदेश जाना पड़ा, 3 साल बाद जब वतन लौटे तब तक वह मां बन ...

मुक्तिमार्ग

 ॠषभ आज सुबह सुबह कुछ कराहते हुए नींद से जागा , आज उसकी तबियत में कुछ ज्यादा ही गिरावट आई थी।कुछ देर बिस्तर में पैर चप्पल में अंदर बाहर करते हुए सामने दीवार पर लगी पुराने फोटोग्राफ पर नजरें टिकाये हुए बैठा रहा,भावशून्य होकर एकटक निहारता रहा फिर कुछ हिम्मत जुटा कर खड़ा हुआ और बरामदे में आ गया,ड्योढ़ी से उतरकर आंगन में कुँए के पास जाकर आंख मुँह धोया और फिर अपने बिस्तर में लेट गया,दोनों हाथ एक के उपर एक अपने माथे पर रखकर किसी गहरी सोंच में डूब गया।ॠषभ एक होनहार अधेड़ उम्र का अविवाहित लड़का था हर प्रकार से अव्वल पर वक्त की ठगी ने उसे बिस्तर पर ला पटका था।कुछ दिन से उसे फेफड़ों से संबंधित समस्याएं आने लगी थी जांच से पता चला की उसे फेफड़ों का कैंसर है और वो भी अंतिम स्टेज में उसके पास गिनती के दिन शेष रह गये थे,माता पिता पहले ही अल्लाह को प्यारे हो चुके थे,चाचा ने पाल पोष कर बड़ा किया था, ॠषभ अपनी अंतिम दिनों में अपने चाचा के पास आ गया था जो भी समय बचा था उसे वे अपने गांव में गुजारना चाहता था।वो दिन भी बड़ा भयानक था, हर वक्त मौत का साया और जिंदगी का सरूर उसे बार बार अतीत के पन्ने में धके...

दिया अमावश का

 अतीत तब और भारी हो जाता है जब वर्तमान पर अमावश गहराती है।जीवन को लेकर हमारी संकीर्णता हमे हमारे ही बनाये भ्रमजाल में फंसा देती है।एक क्षण रूककर सोंचिये कि हम सब इस वक्त जो कुछ कर रहे हैं उसका सारा दारोमदार भविष्य के उज्जवलता की चाहत है पर कोई नही कहता कि वो दिन कब आयेगा,आज भी तो किसी कल का ही परिणाम है किसी बीते हुए कल की भविष्य है तो फिर आज हम खुश क्यों नही हैं ?आखिर ये आज भी तो कल के भविष्य को सुधारने के प्रकल्प से ही उत्पन्न हुआ है पर जीवन में सुख का एक तिनका भी दिखाई नही पड़ता,दूर दूर तक अंधेरा ही अंंधेरा है रोशनी का एक किरण तक नही दिखता इस गहरे श्याह की अंत भी नजर नही आती मानो अब शुक्ल भी अमावश में उतर आयी है कभी कभी यह भी लगता है कि आत्मा का टिमटिमाता दिया इसी अमावश में झोंक दूं और अंत कर दूँ रोशनी की तलाश, तिरोहित कर दूँ अपने अस्तित्व की परछाई को और मिटा दूं जीवन के सारे सबूत, जो शाश्वत था है और रहेगा वो अंधकार था भला इसे कोई कैसे मिटा सकता है? क्या कभी मिटा है? जवाब है नही! तो क्या मानव जाति की संपूर्ण आस्था और उसकी मान्यताएं तथा उसके ईश्वरीय आलोक सब झूठे है? या तो यही सत्...